Tuesday, March 15, 2011

उदास दोपहरें



--------------------------------------------------------

छोटी थी,
तो अक्सर देखा करती थीमाँ को

उस उपर वाली दुछत्ती पे धरे
संदूक को उतार
उस की एक एक चीज़
फिर से खोल-तह, झाड पोंछ, सईहारते !
यह उसकी दैनिक नहीं
तो कम से कम
साप्ताहिक दिनचर्या का अंग तो था ही

यूँ तो उस संदूक में धरी
कोई भी चीज़
इंच भर भी
इधर से उधर नहीं हुई होती
और होती भी कहाँ से
दुछत्ती इतनी ऊंची थी
कि उस तक पहुँचने के लिए
माँ को भी
सबसे ऊंची वाली मेज के ऊपर
कुर्सी रख कर चढ़ना पड़ता...
...और फिर सबको पता था
कि उस संदूक में
नेपथलीन की गंध में तह किये
पुराने कपड़ों के सिवाय
और कुछ है भी नहीं.... |

पर फिर भी माँ उसे
अक्सर ही उतारती
और अपनी सारी दोपहर
उसके साथ ही बिता देती...

हाँ, माँ इस काम के किये खासतौर पर
दोपहरें ही चुना करती ...
...वो उदास दोपहरें |
अब यह कहना थोडा मुश्किल है
कि माँ उदास दोपहरें चुना करती थी...
या माँ को उदास देखकर
दोपहरें खुद ही उदास हो जाया करतीं...
पर हाँ, वो दोपहरें उदास होतीं ...

सच....उस वक़्त दूसरों की तरह
मुझे भी यही लगता था
कि माँ को काम करने की आदत है
और इसीलिए वो काम ना होने पर भी
काम ढूंढ लिया करती है
पर अब
जब खुद उस पड़ाव पर आ पहुंची हूँ
जहाँ ना तो नाखूनों पर चावल दे जाने वाले बगूलों ( माना जाता था कि इससे ख्वाहिशें पूरी होती हैं)
की अहमियत रह गयी है
ना ही जिद्द करने की उम्र
और जहाँ ख्वाहिशें अक्सर भविष्य के नाम लिखे
वर्तमान के किसी संदूक के हवाले कर दी जाती हैं,
बड़े एहतियात से... तब जा कर समझ आया है
कि उन् उदास दोपहरों की उदासी
आती कहाँ से थी....

--------------------------------------------------------