Sunday, December 21, 2008

पंछी

सुबह होते ही
तुम्हारी यादों के पंछियों को
उड़ा दिया करती हूँ
और खुद को
इतना व्यस्त कर लेती हूँ
के एकांत मुझ तक
पहुँच ही ना सके

चहल-पहल वाले इलाकों में
पंछी ठहरा जो नहीं करते

कभी यूँ ही वक़्त-बेवक्त
हवा को रोक
उससे बतियाने
बैठ जाया करती हूँ
तो कभी उसका आंचल
अपनी शाखों में जकड
उससे उलझने के
बहाने ढूँढ लेती हूँ।

या फिर कभी
गुज़रते हुए मुसाफिरों को
अपनी छाँव बढा
खींच लाती हूँ
और बिना किसी आमंत्रण के ही
उनकी बातों में शामिल हो जाती हूँ

और कुछ नहीं मिलता तो
खुद ही अपनी शाखों को
जोर जोर से हिला
कुछ फल, कुछ फूल, कुछ पत्ते
नीचे बिखेर दिया करती हूँ
ये सोच के शायद
इन्हें बीननें के बहाने ही सही
पर कुछ लोग मेरे इर्द-गिर्द
मौजूद तो रहेंगे

पर इतने सब जतनों से भी बस
दिन गुजारने का उपाय ही
हो पाता है
दिन ढले तो फिर तेरी यादें
मुझे घेरे
खडी होती हैं

यूँ भी
पंछी चाहे
कितनी ही दूर निकल जाएँ
सांझ ढले उन्हें
शाखों पे लौट
आना ही होता ह

पर फिर
तुम अब तक
क्यूँ नहीं लौटे…। ?

हो सकता है
उधर का सूरज
देर से ढला करता हो!!