Thursday, October 29, 2009

आँसू


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कितनी दफा मना किया था
पर सुनता कब था?
ज़रा नज़र हटी नहीं,
के दौड़ पड़ता , झरोखे की ओर.

पाँव उन्चका उन्चका के झांकता,
हाथ बढ़ा बढ़ा के पुकारता.
आह! आखिर वाही हुआ ना,
जिसका डर था!

लोग बताते हैं
पलकों के तिरपाल पकड़,
बहुत देर तक लटका रहा था…
शायद कुछ देर और
इंतज़ार कर लेना चाहता था तुम्हारा.

पर वो सीली पलकें…
आखिर कब तक सहारा देतीं?
सो चटख गयी कोई बेचारी,
और फिसल पड़ा वह भी.

सीधे औंधे मुंह गिरा था,
गर्म पथरीली सड़क पर
और गिरते ही,
धुआं हो गया.

आह! आज फिर मैंने
तुम्हारी इक निशानी गँवा दी!!!


२३ नवम्बर,08

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Friday, October 16, 2009

सुराख़

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मेरी छत की दीवार पर
दो सुराख़ हैं.
जाने कितनी दफा
भर चुकी हूँ इन्हें,
पर हर बरस,
बरसात में,
उघड ही जाते हैं

और इनसे रीसता पानी
वक़्त-बेवक्त टपक
रुसवा कर जाता है,
सरेआम!

शुक्र है, ये बरसात
बारहों- मास् नहीं रहती!

पर इन दो सुराखों का क्या करुँ?
कैसे भरूँ इन्हें,
के तेरे दर्द की
नुमाइश ना हो?

इस ओर तो
मौसम भी नहीं बदलता!

और बदले भी कहाँ से?
मेरा तो आफताब भी
तू ही था.
तेरे बाद अब
किसके लगाऊं फेरें,
के दिन फिरें…?

‘कुछ बदलेगा’
ये उम्मीद भी अब
बुझ चुकी.
बाकी है…तो बस,
यही दुआ
के ‘अब के बरस
ये बरसात
मेरी साँसे भी बुझां दे
और ये सुराख
हमेशा हमेशा के लिए
बंद हो जाएँ….!!’

एक पुरानी रचना.... 11 Dec, 08