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कहीं पढ़ा था
"लफ्जों के दांत नहीं होते,
पर काटते हैं,
और काट लें
तो फिर उनके ज़ख्म
उम्र भर नहीं भरते!"
पर तुम्हारी खामोशी...
वो तो काटती भी नहीं,
बस घुल जाती है,
रूह में,
और घुलते घुलते
घो़लती रहती है धीरे धीरे,
मुझे भी, अपने भीतर,
किसी अम्ल के मानिंद!
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