Wednesday, June 24, 2009

तेरी यादों की लहरें

--------------------------------------------------------
तेरी यादों की लहरें आयीं और लौट भी गयीं
पर ज़हन में अब कोई ख़याल उगता ही नहीं

सैलाबों के बाद ज़मीं बंजर भी हो जाती है

--------------------------------------------------------
--------------------------------------------------------

बड़ी मशक्क़त से खड़ी करती हूँ रोज़ नए तर्कों की इमारतें
दिल पे समझदारी का शहर बसने का गुमां,भला लगता है

तेरी यादों की बस एक लहर भर, मुझे फिर से रेत कर जाती है
--------------------------------------------------------

Tuesday, June 16, 2009

मैं....... एक लोक गीत

----------------------
जानती हूँ
मेरा तुम्हारा साथ
क्षणिक है

सो इन कुछ क्षणों में,
ना तो यह मुमकिन है
कि तुम समझ सको
मायने मेरे सभी
और ना ही यह संभव,
कि मैं छोड़ पाऊँ
वो छाप
ज़हन पर तुम्हारे
जिसे वक़्त चाह कर भी
धुंधला ना सके|

पर हाँ,
सदियों बाद ही सही,
जब कभी झाडोगे
वक़्त की धूल
ज़हन से,
मेरे रंग....फिर बोल उठेंगे,

मेरी खुशबू से रौशन हो जायेंगी तुम्हारी सांसें

और मेरे बोल...
उन्हें तो तुम
खुद ही उठा
लबों से,
चूम लोगे !!

देखना,
उस वक़्त
वक़्त भी खड़ा-खड़ा
मुस्कराएगा बुद्ध की तरह
और मैं,
मैं अपने कद से बड़ी
एक मुस्कान खींच ला
चुपके से रख जाऊँगी,
तुम्हारे होठों पर!

मैं....... एक लोक गीत |
हमेशा साथ रहना
मेरी नियति नहीं!
पर मुझे कभी,
बिसरा ना सकोगे तुम.....
----------------------

Saturday, June 13, 2009

वक़्त के साथ

---------------------------
अब्बा की ऊँगली पकड़
जब बाज़ार जाती
और कोई aeroplane
सर के ऊपर से
गुज़र जाया करता
तो हाथ फ़ौरन
अपनी पकड़ छुड़ा
उठ जाया करते,
आँखें उसके ओझल होने तक
पीछे दौड़ती रहती उसके ,
और मैं,
मैं अपनी पूरी ताकत लगा
जोर से चिल्लाती
"खुदा हाफिज़......................"

ऊँगली पकड़ कर चलना तो
कब का छूट गया,
और हवाई जहाज़ों को तकना भी...
पर खुदा हाफिज़ कहने के मौके
अब भी बहुत आते हैं

वक़्त के साथ
जान पहचान की पकड़
बढ़ी ही है,
घटी तो नहीं |

पर ऐसे मौकों पर
अब हाथ नहीं उठते
और ना ही जाते हुए क़दमों को
अगले मोड़ तक छोड़ने जाती हैं निगाहें

बस बमुश्किल
लभ हिला करते हैं
और वो भी कुछ यूँ
कि कोई दस्तूर अदा करते हों...

दिल तक तो कोई हरक़त की लहर
पहुँचती ही नहीं !

सच
वक़्त के साथ बहुत
बेअदब, बदतमीज़ हो गयी हूँ मैं
---------------------------

Thursday, June 11, 2009

लेन-देन

--------------------------------------------------------
आज मैंने बादल को
टूट टूट कर बरसते देखा
और साथ ही देखा
प्यासी धरा को
उसका हर कण अपने आँचल में
समेटते हुए

और रात ही तो देखा था मैंने
चांदनी को पिघल पिघल कर
टपकते हुए
और साथ ही देखा था
फूल, दूब, झरने, गिरी, सभी को
उसकी बूँद बूँद आतुरता से
पीते हुए

और वो झुलस झुलस कर जलता हुआ सूरज
जिसे देख रही थी मैं उस रोज़
और साथ ही देख रही थी
इस संसार के कण कण को
उसकी किरण किरण
सहेजते हुए

और ये नदी
जो मीलों का फासला तय कर
बस सागर से मिलने की आस लिए
चलती ही जाती है
इसे भी तो मैं सदियों से देखती आ रही हूँ
और साथ ही देखती आ रही हूँ
इस अनंत समुद्र को
जो सिर्फ इसे सीने से लगाने की खातिर
जाने कबसे बाहें फैलाए बैठा हुआ है

और ये बोझिल हवा
जो टूटती साँसों के साथ भी
दौड़ती ही जाती है
इसे भी तो देख रही हूँ मैं अभी
और साथ ही देख रही हूँ
ज़िन्दगी को
इसे अपनी हर सांस में
भरते हुए


आज…...कल शाम……उस रोज़……अभी….
आज-तक जाने कितने ही लेन-देन देखे हैं मैंने
इस दुनिया में
और पाया है यही
कि कुछ दे सकने के लिए
लेने वाले का भी कुछ प्रयास
आवश्यक है

भला उस भिक्षुक को कोई भिक्षा भी कैसे दे
जिसके हाथ में कटोरा तक ना हो !

इसलिए कहती हूँ प्रियतम
कि मैं खुद को पूर्णतः
तुम्हें सौंप सकूं
इसके लिए कम से कम
अपनी मूक स्वीकृति तो दे देना ....!!!



I would like to thank one of my dear frndz Vikash Kumar for contributing to this poem,"भला उस भिक्षुक को कोई भिक्षा भी कैसे दे, जिसके हाथ में कटोरा तक ना हो !" . Thank you so mch Vikash for ur input. you have always been the best critic and support... :)

17th Oct, 07