Thursday, May 19, 2011

"महा"-नगर

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सामने विस्तार ही विस्तार है

दूर तक फैला हुआ एक शहर है
जो समंदर किनारे बस गया
या समंदर आके उसके गले लग गया ...
पता नहीं!

पर समंदर है |
और उसका दूसरा छोर
उन पहाड़ों से जा मिला है...
पहाड़, जिनकी ऊँचाई इतनी है
कि बमुश्किल ही बताया जा सकता है
कि उन्होंने आसमान सर पर उठा रखा है
या कोई राज़ उगलवाने की खातिर
आसमाँ ने ही उन्हें सदियों से उल्टा लटका रखा है |

पर आसमान है |
और दूर तक है
इतनी दूर तक कि उसका दूसरा सिरा कहाँ है
मुझे नहीं दीखता...
शायद अनंत में होगा ...मुझे क्या ?

बारवीं मंजिल पर बैठ
शीशे कि दीवारों से
हर रोज़ देखती हूँ ये विस्तार
और हर रोज़ ही महसूसती हूँ
अपने भीतर कुछ घुटता हुआ ...

"महा"-नगर शायद
इसे ही कहते हैं !

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