Monday, March 16, 2015

कस्टम-फिट का समय और बुद्ध

--------------------------------------------------------
वो बड़ी-बड़ी आँखों वाली लड़की थी
हाँ, बड़े सपनों वाली नहीं,
बड़ी आँखों वाली
उसे तलाश थी अपनी,
वो देखना चाहती थी खुद को,
उससे ज़ियादा,
जितना उसका आइना उसे दिखता था
सो, अपनी उम्र के अलग अलग पड़ाव पर
उसने चुने कई अलग अलग आईने
जिनमें कई जोड़ी आँखें शामिल थीं...
माँ, बाबा, भाई, बहन, दोस्त,
समाज, तीन प्रेमी
और-तो-और घुंगराले बालों वाले उस अजनबी की भी
जिससे उसका बस अजनबियत का रिश्ता था

पर हर बार उसने यही पाया कि
हर रिश्ते ने क़तर दिया था उसका अक्स
अपने आमाप के अनुसार
रिश्ते अपने समय से अछूते जो नहीं होते
और ये मेड-तो-मेज़र और कस्टम-फिट का समय था
खैर, अब वो थक गयी है है अपने आधे अधूरे अक्स देख के
सो, अब मूँद ली हैं उसने आखें,
सी लिए हैं होठ
और इक कवच क तौर पर
सजा ली है एक अधूरी मुस्कान
काश! वो अपने कान भी बंद कर पाती
जो अब आलोचनाओं, और विलापों के बोझ से
दिन-ब-दिन लम्बे हुए जाते हैं
सचमुच, बुद्ध होना आसन नहीं!
--------------------------------------------------------

Saturday, March 07, 2015

प्रिजर्वेशन या हत्या?

--------------------------------------------------------
मत लिखो कोई कविता
कि तुम्हारे उसे कागज़ पर दर्ज करते ही
एक जीती जागती कविता दम तोड़ देगी
क्यूंकि वह यह जानती है कि
अब उसे कोई जियेगा नहीं,
गुजर जायेंगे लोग
उसे अनदेखा करते हुए
यह सोच कर कि अब वह
प्रेज़र्व कर ली गयी है कागजों में,
बना ली गयी हैं उसकी कई कई प्रतियाँ,
और वे लौट सकते हैं उस तक
अपनी सहूलियत और मर्ज़ी से
और साथ ही वह यह भी जानती है
कि कोई नहीं लौटता उनतक
जिनके खोने का डर नहीं होता

--------------------------------------------------------