तुम्हारा यह समाज
ढकोसलों की नींव पर ही
टिका हुआ है…
आखिर उसका स्वरुप
तुम्हारे अनुरूप हो,
इसके लिए ऐसा होना
आवश्यक जो है!
नारी को देवी की संज्ञा दे दो,
उसे पूजनीय बना दो,
ताकि वह मूर्तिमान हो,
बस देती रहे, पर रहे सदा
तटस्थ
उसे गृहलक्ष्मी, गृह-स्वामिनी बना दो
ताकि वह
घर की चार दीवारी से बाहर के
तुम्हारे साम्राज्य की, आकांक्षा तो दूर,
कल्पना तक ना कर सके
इतने झुका दो उसके कंधे
परिवार की इज्ज़त
और कुल-मर्यादा
का हवाला दे देकर
के वह अपने अस्तित्व के शव तक को
स्वाव्लंभी हो, बिना किसी पुरुष नाम के,
कन्धा तक ना दे सके
और यदि किसी रोज़
तुम्हें दिखने लगे,
कि देवी बनकर जीना उसे स्वीकार्य नहीं,
तो उसे सती करा दो,
धर्म का रूमाल तो जेब में लिए
फिरते ही हो
गर दिखे कि वह
मात्र गृह-लक्ष्मी, गृह-स्वामिनी बनकर खुश नहीं,
तो उसे ‘बाजारू’ बना दो
आखिर तुम्हें तो बस जुबां ही हिलानी है
हवाएं तो रहती ही हैं,
तैयार......... तुम्हारी खि़दमत मे !
और यदि नज़र में आ जाए
कि वह
परिवार की इज्ज़त
और कुल मर्यादा के लिए
‘पूर्वारक्षित’ कन्धा
अपनी आकन्क्षाओं के साथ
बाँट रही है
तो उसे चरित्रहीन बता
उसकी ही इज्ज़त की धज्जियाँ उड़ा दो….
वैसे भी भीगा दामन तार तार होने में
वक़्त ही कितना लगता है
और यदि इस सब के बावजूद
तुम्हें ‘अपने’ तथा
‘अपनी परिकल्पना के समाज’
के अस्तित्व पर मंडराता संकट
टलता ना दिखे
तो फिर ‘नैतिकता’ और
‘संस्कृति’ का नगाडा पीट पीट कर,
जोर जोर से चिल्लाओ
और जुटाओ अपने समर्थक
जो सुझा सकें तुम्हें….
कुछ नए ढकौंसले !
क्यूंकि….
तुम्हारा यह समाज
ढकोसलों की नींव पर ही,
टिका हुआ है
और इसका स्वरुप
तुम्हारे अनुरूप ही बना रहे
इसके लिए ऐसा होना,
आवश्यक भी है !
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