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बरसों से ख़ामोशी खानाबदोश हुआ करती थी |
मेरी कठोर हंसी उसे घर बनाने ही
जब भी उतरती फिज़ा में,
एक छनाके के साथ उतरती
और एक ही झटके में
चकनाचूर कर डालती,
चुप्पी की
आखिरी ईंट तक!
पर देखो,
अब कैसे इत्मीनान से पसरी बैठी
यह हमारे दरमयां........
यकीं जो है इसे भी ,
के अब जो तुम चले गए हो
कभी ना लौटने की खातिर
तो रुख न करेगी इधर का
यह कमबख्त हंसी भी
दुबारा कभी
ख़ामोशी को है घर मिल गया
और मेरी हंसी
खानाबदोश सी फिरा करती हैं अब........!
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