Friday, October 16, 2009

सुराख़

--------------------------------------------------------

मेरी छत की दीवार पर
दो सुराख़ हैं.
जाने कितनी दफा
भर चुकी हूँ इन्हें,
पर हर बरस,
बरसात में,
उघड ही जाते हैं

और इनसे रीसता पानी
वक़्त-बेवक्त टपक
रुसवा कर जाता है,
सरेआम!

शुक्र है, ये बरसात
बारहों- मास् नहीं रहती!

पर इन दो सुराखों का क्या करुँ?
कैसे भरूँ इन्हें,
के तेरे दर्द की
नुमाइश ना हो?

इस ओर तो
मौसम भी नहीं बदलता!

और बदले भी कहाँ से?
मेरा तो आफताब भी
तू ही था.
तेरे बाद अब
किसके लगाऊं फेरें,
के दिन फिरें…?

‘कुछ बदलेगा’
ये उम्मीद भी अब
बुझ चुकी.
बाकी है…तो बस,
यही दुआ
के ‘अब के बरस
ये बरसात
मेरी साँसे भी बुझां दे
और ये सुराख
हमेशा हमेशा के लिए
बंद हो जाएँ….!!’

एक पुरानी रचना.... 11 Dec, 08

14 comments:

मनोज भारती said...

‘कुछ बदलेगा’
ये उम्मीद भी अब
बुझ चुकी.
बाकी है…तो बस,
यही दुआ
के ‘अब के बरस
ये बरसात
मेरी साँसे भी बुझां दे
और ये सुराख
हमेशा हमेशा के लिए
बंद हो जाएँ….!!’

इतना निराश होने की जरुरत नहीं
आपके सुंदर भाव
और आपका स्वयं के सान्निध्य में डूबकी लगाना ...
बावजूद इसके
इन सुराखों की परवाह
इस कदर क्यों ?
कि जीवन की सांसे
बुझा देने की दुआ मांग रही हैं

नहीं, अभी तो जीवन का भरपूर आनंद लेना है
टपकने वालों को टपकने दो सूराखों से
हम तो पूरे आकाश में विचर सकते हैं

हरकीरत ' हीर' said...

Vartika ji bhat achha likh rahi hain ....niche ki kavita to hriday choo gayi ...bhot achhe bhav piroti hain aap ......itani choti umar mein itani paripakvta .....?? hairaan hun ....!!

nilesh mathur said...

वर्तिका जी, आपकी कुछ कविताएँ पढ़ी हैं, मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है इतनी कम उम्र में शब्दों द्वारा भावनाओं की ये अभिव्यक्ति किस तरह संभव है, बहुत दिनों बाद दिल को छु लेने वाली कविताएँ पढने को मिली हैं, आँखे भी कुछ नम हो आई, शुभकामना !

M VERMA said...

किसके लगाऊं फेरें,
के दिन फिरें…?
सशक्त अभिव्यक्ति हर कविता मे. मै आपकी कविताओ का इंतज़ार करता रहता हूँ.
टपकना भी तो सार्थक हो सकता है. और फिर टपकन बन्द करने के लिये साँसे बुझा देना उचित है क्या?
धुरियाँ फेरे नही लगाती.
पुन:
छत गर टपकता है तो
कोई बात नही
शायद इसी तरह
जिन्दगी को आब मिलेगा

daanish said...

"kuchh badalegaa
ye ummeed bhi ab
bujh chuki hai..."

mn ke bhaav shabdoN meiN dhal kr
ek sampoorn nazm bn gaye haiN
shaili achhee hai...
aur...
"gm ki andheri raat meiN
dil ko na beqraar kr
subah zroor aayegi
subah ka intzaar kr..."
aisaa bhi to kahaa hi gayaa hai
Ek bahut achhee rachnaa pr mubarakbaad

Narendra Raghunath said...

nice one...

narendra raghunath

Puja Upadhyay said...

दो नैना और एक कहानी, थोडा सा बादल, थोडा सा पानी...क्या क्या सोच लेती हो बरसात के बहाने से...बहुत खूबसूरत, बहती हुयी सी कविता.

m.s. said...

"शुक्र है, ये बरसात
बारहों- मास् नहीं रहती!"
beautiful

Gaurav said...

I would say something, If I would have those words capable to analyze the potential of this poem, I would say one thing only that you got me your fan Or Better I would say cooler or AC. Hey dear don't take it funny. Enjoy, Have fun.

निर्झर'नीर said...

uniqe khayal..

nahi hamdard koi dunia mein badhkar in aankho se
jab ek roti hai to doosri bhi roti hai..

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

:):):):):) just awesome...

Manav Mehta 'मन' said...

bahut khoob, hrdya ko skoon mila padh kar........lajawaab hai.....

Avinash Chandra said...

और ये सुराख
हमेशा हमेशा के लिए
बंद हो जाएँ….!!’


shabd khatm.....kal fir laaungaa agli posts ke liye... :)
just too good

Ruppin said...

taarif karne ke liye harr roj naye sabd nahi dhoond sakta mei, jesa hoon wesa hi samajh lo