यूँ यहाँ फर्श पर पड़ी हूँ
अपने ही पाँव आपस में गूँथ,
सर घुटनों पे टिका
ख़ुद को ख़ुद में ही
समेटती जाती हूँ
जैसे कोई गाँठ लगा रहा हो,
किसी गठरी में!
हाँ,
गठरी ही बना लिया है मैंने ख़ुद को
तुम्हारे जाने के बाद
और समेट कर बाँध लिया हैं
तुम्हारी यादों को
जो अब तक मेरे भीतर
करीने से सजी मिला करती थी
के सुना था कभी
‘गठरियों में धरा सामन
आसानी से नहीं मिलता'
फ़िर क्यूँ लोग अब भी मुझे देखते ही
तुम्हें मुझमे ढूँढ ही लिया करते हैं ??
1 comment:
so nice of u....bahut umda...likhti rahiye.shubhkamnaye
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