Thursday, April 16, 2009
प्रेम धूप
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मान क्यूँ नहीं लेते
के प्रेम है तुम्हें मुझसे
क्यूँ बंद किये बैठे हो
सारे दरवाज़े खिड़कियाँ
अपने मन की?
इसी डर से ना
के कहीं कोई जज़्बात तुम्हें
दगा ना दे दे!
क्यूँ आँखों में कृत्रिम
क्रोध लिए फिरते हो?
इसी भय से ना
के यदि
यह आवरण हटा
तो नेह
छलक ही जायेगा!
क्यूँ गिरहें लगाये बैठे हो,
यूँ खुद में?
इसीलिए ना
के यदि ये खुल गयीं
तो तुम्हारी भावनाएँ
तुम्हें बहा
ले ही आयेंगी,
मुझतक!
क्यूँ मुंह मोड़
चले जा रहे हो
दूर मुझसे?
इसीलिए ना
के कहीं नज़र में
'मैं' आ गयी
तो तुम्हारे ये सारे प्रारब्ध
खुद बखुद ही
'अर्थहीन' हो जायेंगे
पर ये क्यूँ नहीं समझते
के इन् सारे प्रारब्धों का अर्थ
'अथाह पीडा' से अधिक,
तो अब भी कुछ नहीं
आखिर
प्रेम तो धूप है
बुझाने जाओगे
तो पाँव ही जलेंगे
धूप तो अपना रस्ता
फिर ढूँढ लेगी
सो...
मान क्यूँ नहीं लेते कि .....
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5 comments:
पर ये क्यूँ नहीं समझते
के इन् सारे प्रारब्धों का अर्थ
'अथाह पीडा' से अधिक,
तो अब भी कुछ नहीं
आखिर
प्रेम तो धूप है
बुझाने जाओगे
तो पाँव ही जलेंगे
धूप तो अपना रस्ता
फिर ढूँढ लेगी............
bahut achchhee tarah bhavon ko ukera hai .........
dard sa jhalakataa dikh raha hai ........
shubhkamnaayen aur bahut sara pyar ......
dhanyawaad di... aapki shubhkamnaein aur pyaar hi to humein hauslaa dete rehte hain.... aur aap prernaa... :) pratikriyaaon ke liye hardik dhayawaad.... love u
bahut meetha..............nihayat hi sndar
bahut pasand aayi......dhanyawaad
vartika ji....bahut shandar abhvyakti hai ye...
prem ko jab bhi tyag ke saath sangrahit karke kuchh racha jaaye to isme aur bhi nikhar aa jata hai.....khoobsurat....badhai sweekar kare
Vartika.......sawaal to tarkik hain.......par hain kiske liye.......?
jo bhi ho mujhe to maza aa gaya, this poetry made my thirst off.
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