Sunday, September 20, 2009

Kaleidoscope: a poetic short-story

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बस पौ फटने की देरी होती
और, वह दौडी आती,
आँगन की ओर....
मिची आँखें, नन्हें हाथों से मलते,
नंगे ही पाँव....
बीनने वो रंगीन कांच के टुकड़े
जो ना जाने कौन छोड़ जाता था
हर रात वहां
और बनता था कारण
उसके अचरज का ...

माँ को उसका यूँ टुकड़े बीनना
कभी भला ना लगा
"किसी दिन चुभ जायेंगे, तब समझोगी..."
वह फटकार लगा उसे
भगा देती...
पर माँ से नज़र बचाना
उसे खूब आता था

उसके उठने से पहले ही
एक एक छिटका रंग
बीन चुकी होती वो..
और फिर
उस छोटे से कमरे के
ऊंचे से छज्जे पर छि,
बनाया करती...
हर रोज़ एक नया kaleidoscope....

ज़िन्दगी में तो रंगों से उसका
कोई सरोकार हुआ ही नहीं
सो उनका आभाव भी नहीं खला !
पर हाँ,
यह कांच की रंगीन दुनिया
बहुत लुभाती थी उसे
ज़रा घुमाया नहीं,
की नजारे बदल गए... !!

"काश ज़िन्दगी भी ऐसी ही होती!"
वह अक्सर सोचा करती
और साथ ही सोचती
"आज रात तो मैं
नहीं ही सोऊँगी,
और छिपकर देखूँगी
की आखिर वह कौन जादूगर है
जो रोज़ रोज़ यह रंगीन सौगाते
छोड़ जाता है,
मेरे लिए..!!"

पर नींद उसकी सोच
कहाँ समझती थी!
वह तो आ ही जाती...
अपने समय पर |

पर आज,
आज नींद ने ना सही,
पर भगवान् ने उसकी सुन ली थी
और सोते सोते वह खुद ही चौं कर
उठ गयी |
बाहर आँगन से कुछ गिरने की
आवाज़ जो आई थी |

"ज़रूर वह जादूगर छत से गिर पडा होगा!"
सोचा उसने...
और दौड़ पड़ी....आँगन की ओर....
मिची आँखें, नन्हें हाथों से मलते,
नंगे ही पाँव....

सामने चांदनी बिखरी पड़ी थी
और कांच के बहुत से टुकड़े भी...
दूर एक कोने में माँ भी पड़ी थी...
छिटकी..... सिमटी.... बिखरी सी..
बिलकुल कांच के टुकडों की ही तरह....
हरी .....नीली....बैंगनी सी......

और ठी सामने
खडा था ---- वह ,
लिए दाएं हाथ में दारू की बोतल
और बायें में... एक बेल्ट |

शक्ल तो उसकी उसे
अपने पिता से मिलती हुई लगी,
पर वह.....नहीं!

रंग चुभ गए थे आज उसे....

काश! थोडा घुमाकर,
वह यह आकृति भी बदल सकती!!
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10 comments:

sanjay vyas said...

जीवन में अगर कांच के टुकडो की तरह सब कुछ पारदर्शी होता तो उसे मनमर्जी के आतंरिक परावर्तन से आकार दिया जा सकता था,पर यहाँ तो ज़्यादातर अपारदर्शी, पारभासी औ धूसर है. रौशनी को सोखने वाला.
बहुत अच्छा है आपका ये लिखा.

दिपाली "आब" said...

hila ke rakh diya vartika...
hatzzzz of sweetie...
kya soch, kya vus'at paai hai khayaalon ki
amazing..

its really heart touching... padhte padhte, rongte khade ho gaye.. dard ko itni khoobsurati se shayad hi kabhi kisi ne bayan kiya ho.

M VERMA said...

vartika जी उन काँच के टुकडो को शायद घुमाकर उनके आभास को बद्ल भी ले पर उस काँच के टुकडे का रंग कैसे बदलेगा जो उस बोतल तोडते पिता के शक्ल के आभास के बाद बिखर गये होंगे.
"शक्ल तो उसकी उसे
अपने पिता से मिलती हुई लगी,
पर वह.....नहीं!

रंग चुभ गए थे आज उसे...."
इतना मर्मस्पर्शी ; इतनी गहरी सम्वेदना
वाह !

दिल दुखता है... said...

bahut khoob..........

सुशीला पुरी said...

bahut sundarta se shabdon ko piroya hai aapne....

Lams said...

Vartika Ji,
.
Main sann reh gaya hun!! Kya bolun kya kahun kuch samajh nahi pa raha hun....
.
Main is nazm par kuch bhi kehne ke layak nahi hun. bas apka shukriya karna chahunga ki aapne ise blog par post kiya. thank you soooo much...

--Gaurav

सुशील छौक्कर said...

कितनी मर्मस्पर्शी रचना लिखी है आपने। बहुत खूब। पसंद आई आपकी ये रचना।

ankita said...

wat will happen next i knew from the start even still i read till the last. this is wat good creations makes you do. plus the way you presented it.....n the idea of Kaleidoscope was amazing......m proud of u...

cartoonist anurag said...

vartika ji.......
bahut hi bhavnatmk rachna hai...
aapne jis khoobsoorti k sath shabdon ko piroya hai uski jitanee tareef ki jay vo kam hai.......

Puja Upadhyay said...

उफ़..कैसा चुभता हुआ सच, कैसे रंग सच के बिखेरे हैं...शायद कविता होती ही इसलिए है की उसमें ढल कर दर्द भी खूबसूरत होता है.