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कितनी दफा मना किया था
पर सुनता कब था?
ज़रा नज़र हटी नहीं,
के दौड़ पड़ता , झरोखे की ओर.
पाँव उन्चका उन्चका के झांकता,
हाथ बढ़ा बढ़ा के पुकारता.
आह! आखिर वाही हुआ ना,
जिसका डर था!
लोग बताते हैं
पलकों के तिरपाल पकड़,
बहुत देर तक लटका रहा था…
शायद कुछ देर और
इंतज़ार कर लेना चाहता था तुम्हारा.
पर वो सीली पलकें…
आखिर कब तक सहारा देतीं?
सो चटख गयी कोई बेचारी,
और फिसल पड़ा वह भी.
सीधे औंधे मुंह गिरा था,
गर्म पथरीली सड़क पर
और गिरते ही,
धुआं हो गया.
आह! आज फिर मैंने
तुम्हारी इक निशानी गँवा दी!!!
२३ नवम्बर,08
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