Saturday, October 11, 2008

नाप

जानते हो,
जब भी कभी बाज़ार जाती,
और कोई सपना पसंद आ जाता
तो झट उसे खरीद लेती
तुम्हारी खातिर !

उस ज़माने में
तुम्हारा कद तो
तेजी से बढा करता था
पर फिर भी
तुम्हारा नाप लेने की
कभी ज़रूरत नहीं पड़ी मुझे।

अब भी जब कभी
वो रास्ता भटक जाती हूँ
और नुमाइश पे लगे
रंग -बिरंगे सपनो पर
नज़र कहीं अटक जाती है,
तो दिल मचल कर कह उठता है,
“खूब फबेगा ये उस पर ”

पर अब मैं
झट उसे खरीदती नहीं
रोक लेती हूँ खुद को,
और लौट आती हूँ...
खाली ही हाथ

के अब मेरे खरीदे हुए सपने
तुम्हें फिट नहीं आते।
बड़े जो हो गए हो तुम !

कद तो बढ़ता नहीं अब तुम्हारा
पर सपनों का नाप
हर दिन बदल जाया करता है…।

3 comments:

PD said...

बहुत ख़ूबसूरत कविता है.. सच के बहुत करीब.. क्या पता सच ही हो?

Puja Upadhyay said...

दिल में गहरे उतर गए शब्द आपके...कितना खूबसूरत लिखा है.

वर्तिका said...

@PD...... sach k kareeb bhi agar aapko lagi to bhi main khush hoon... aapki pratikriyaaon k liye hardik dhanywaad.. umeed ahi bhavishaya mein bhi aap apni pratikryaen dete rahenge........ :)