Saturday, February 07, 2009

आरज़ू


हसरतें,
सपने,
कल्पनाएँ
और प्रेम...
सब समेट कर
हर रोज़
एक नज़्म लिखती हूँ
और फिर
उस नज़्म की नांव बना,
बहा देती हूँ,
आँखों के पानी में...

मेरे यहाँ
समंदर जो नहीं होता!

पर सुना है सारा पानी जाके
समंदर में ही
मिला करता है...|
सो यूं ही सही,
पर हो सकता है
मैं किसी रोज़ तुमसे
मिल सकूं!


सच,
तुमसे मिलने की
आरज़ू बहुत है...!!

3 comments:

ज्योत्स्ना पाण्डेय said...

हर रोज़

एक नज़्म लिखती हूँ

और फिर

उस नज़्म की नांव बना,

बहा देती हूँ,

आँखों के पानी में...

मेरे यहाँ

समंदर जो नहीं होता!


bahut achchha bhav sampreshan.........

meri hardik shubh kamnaayen ....
love u

Dr. Tripat Mehta said...

very nice.. dil ki baat ko badi hi asaani se keh diya aapne... beautiful

Anonymous said...

so nice........vatika