Friday, May 08, 2009

एक टुकडा दिल्ली: D Confessions of Delhi, a city that has stood innumerable changes and has still been the same


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चुन्नी देवी को मुझसे बहुत शिकायत रहती है...आये दिन मुझे सुना सुना कर अपनी पडोसन से कहती है कि कितना बदल गया हूँ मैं. कहती है की जब वह दुल्हन बन कर आई थी अपने मुनिरका वाले इस मकान में, उस वक़्त सड़कों पर मोटर गाड़ियों के हार्न नहीं बल्कि इक्के की टप-टप सुनाई पड़ती थी. घूमने के लिए "मॉल" नहीं बल्कि 'लाल किला' और 'India Gate' जाया करती थी. सब्जियां खरीदने उसे बाज़ार तक नहीं जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी, बल्कि "सब्जी लेलो, ताज़ी ताज़ी सब्जी!" की आवाज़ लगाती झुमकी सुबह सवेरे ही घर आ जाती और सब्जी के साथ साथ बिन पैसे की थोडी धनिया-मिर्च रखते रखते पड़ोसियों के घर के हाल चाल भी सुना जाती.... और तो और अपने पति को 'गरमा-गर्म' खाना पहुचने वो एक हाथ का घूंघट काढे खुद ही जाया करती....साइकिल पर...खेतों की पगडंडियों से होते हुए कनाट प्लेस तक.... और फिर इसी बहाने, पति का थोडा और सान्निध्य उसे मिल जाया करता.... उस वक़्त को याद करता हूँ तो हंसी आ ही जाती है और चुन्नी देवी की मेरे बदलने को लेकर मुझसे शिकायत मुझे लाज़मी ही लगती है... आखिर अब यदि वो चाहे भी, तब भी साइकिल पर सवार हो, दिल्ली भ्रमण पर थोड़े ही निकल सकती है.... आखिर सनसनाती गाडियां जब बगल से गुजरेंगी तब उसके आधे हाथ का घूंघट उड़ ना जायेगा....और फिर वो घूंघट संभालेगी की खुद को....



आह! वो वक़्त तो मुझे भी बहुत प्यारा था, और उसकी स्मृतियाँ आज भी मेरे दिल के बहुत करीब हैं ...पर क्या करुँ बदलना पडा मुझे....बदलना पडा क्यूंकि वक़्त रहा था.... बदलना पडा क्यूंकि वक़्त के साथ साथ तुम्हारी ज़रूरतें बदल रही थीं.....बदलना पडा क्यूंकि यदि मैं तुम्हारी ज़रूरतों के अनुरूप अपनी संभावनाओं को ना बदलता तो ताकियानूसी और 'आउट-डेटेड' कहलाता ....


ज़िन्दगी ने अपनी रफ़्तार बढा ली थी, सो मैंने भी अपनी सड़कों पर साइकिल और रिक्शों के साथ साथ गाड़ियों के लिए भी जगह बना दी... नए लोग हर दिन् मुझसे जुड़ रहे थे सो उन्हें जगह देने को मैंने अपने वन साम्राज्य और पहाडों को थोडा समेट लिया.... हर किसी को कम से कम उसके हिस्से की छत तो दे सकूं इसीलिए उनके हिस्से के आसमान में थोडी कटौती कर भू-तलीय मकानों को बहु-तलीय इमारतों में बदल दिया मैंने... लोगों के पास खरीदारी करने का समय घटने लगा था सो मैंने बाजारों के साथ साथ मॉल्स को भी थोडी जगह दे दी ताकि ज़रूरतों के सामान जुटाने को उन्हें भटकना ना पड़े... हर दिन जुड़ते नए लोगों की वजह से बसों में भीड़ और सड़कों पर जाम बढ़ने लगे थे, सो मैंने मेट्रो भी जोड़ ली अपनी यातायात सुविधाओं में.... विदेशों से भी मुझे जानने समझने लोग आने लगे थे, आखिर देश की राजधानी हूँ मैं, सो उन्हें यहाँ आकर असुविधा ना हो सो मैंने उनके स्तर की सुविधाएं भी जुटा लीं . उन्हें यहाँ आकर अजनबियत ना लगे सो मैंने उनके जाने पहचाने कुछ नामों जैसे LEVIS, NIKE, KFC, LEE....... इत्यादि को भी अपनी पृष्ठभूमि के संग जोड़ लिया।



और इस तरह लोगों की ज़रूरतों क पूरा करते करते मैं बदल गया.....



पर हाँ मुझे अपने इस बदलाव पर खेद नहीं, बल्कि हर्ष है... आखिर यह मेरे ही बदलाव का ही तो नतीजा है आज आज वो ही चुन्नी देवी जो कल तक आधे हाथ का घूंघट काढे बिना कहीं निकलती ना थी, आज अपनी पोती की स्कूटी पर बैठ Mc'donals में burger खाने जाती है... अब तुम ही कहो यदि मैं ना बदलता तो क्या वो बदलती?



एक तरफ जहाँ मेरा यह बदलाव मुझे ख़ुशी देता है वहीँ दूसरी ओर मुझे सवालों के कटघरे में भी लाकर खडा कर देता है... सवाल मेरी पहचान , मेरी संस्कृति पर... कुछ लोगों को लगता है की मेरी अपनी कोई संस्कृति , अपनी कोई पहचान नहीं. और इसका कारण अक्सर यही बताया जाता है की क्यूंकि मैं हर बदलता गया हर किसी की ज़रूरतों के अनुसार, ... वे कहते हैं कि मैंने अपने साथ जुड़ते नए लोगों को अपने रंग में नहीं ढाला बल्कि मैं खुद उनके रंग में रंग गया... सो मेरे अपने रंग अब शेष नहीं.... पर मुझे ऐसी बातें कहने वालों पर ही हंसी आती है.... मैं कहता हूँ कि हर किसी के रंग में ढलना ही मेरी प्रकृति और संस्कृति है.... रंग जब तक मिलें ही ना तब तक तस्वीर पूरी कहाँ होती है .... और रंगों का अस्तित्व ही तब है जब वे एक सुंदर तस्वीर में ढल जाएँ.... और जहां तक अपने रंगों को , अपनी संस्कृति को संजो कर रखने का सवाल है तो मुझे ऐसा करने के लिए उसे संभालकर किसी म्यूज़ियम में रखवाने की ज़रुरत नहीं.... क्यूंकि मेरी संस्कृति एक सांस लेती संस्कृति है ... हर दिन बढती, फलती फूलती संस्कृति है.... हर पल धड़कती संस्कृति है... और ये हर उस इंसान में संरक्षित है जो किसी भी तरह मुझसे जुडा हो, फिर चाहे वो जुडाव कितना ही छोटे अंतराल के लिए ही क्यूँ ना हो...



Mrs Iyyer जितने ख़ुशी से पोंगल और ओणम मनाती हैं, उतनी ही ख़ुशी से दीपावली और दुर्गा पूजा भी.... जेनरेशन Y की रीता भले ही kfc के कबाबों की शौकीन हो, पर चांदनी चौक की गलियों के पराँठे और नत्थू की चाट खाने भी हर वीकएंड को पहुँच ही जाती है... और तो और वो विदेशी लोग जो कुछ दिनों के लिए ही मुझे देखने , या समझने आते हैं वे भी शौखिया तौर पर ही सही,पर अक्सर भारतीय परिधानों में घूमते नज़र आते हैं...



मानता हूँ की मेरे पास अपना कहने के लिए कोई भाषा नहीं...., कोई वेशभूषा मेरी अपनी नहीं... मेरा अपना कोई त्यौहार, कोई नृत्य नहीं पर फिर भी ऐसा कुछ नहीं जो मेरा ना हो... हिंदी से लेकर पंजाबी तक, oriya से लेकर मलयालम तक, असमिया से लेकर भोजपुरी तक हर भाषा बोलने वाले लोग मुझमें बसते हैं, भारत के हर प्रांत की वेशभूषाएं , उनके त्यौहार, उनके व्यंजन , उनके नृत्य , सबको मैंने संजोया ही नहीं है बल्कि ज़िंदा भी रखा है मैंने खुद में... यदि मैं कहूं की मुझमें एक छोटा भारत बस्ता है और मेरे हर घर में एक शहर तो वो अतिशयोक्ति ना होगी....... भारत का दिल धड़कता है मुझमें... और मेरा दिल मुझसे जुड़े हर इंसान में....



मैं शायद आकाश में उड़ते हुए उस परिंदे की तरह हूँ जो उड़ता है ऊंचा, बहतु ऊंचा, और सिर्फ इसीलिए ही उड़ पाता है क्यूंकि वो आकाश को अपना मानता है.... किसी और पंछी द्वारा आकाश पर अपने हक के छीने जाने के डर से वह अपने पंखों का विस्तार करना नहीं छोड़ता.....



मैं भी कुछ ऐसा ही हूँ.... अपने रंगों के अस्तित्व खो देने के डर से मैं दुसरे रंगों को खुद से अलग रखने कि कोशिश नहीं करता... मैं ढलता हूँ हर रंग में ताकि तस्वीर पूरी हो सके, बदलता हूँ हर पल में ताकि फीके-धुन्धलाये रंगों पर नयी चमक आ सके, बस्ता हूँ हर घर में ताकि कभी बेआसरा ना हो सकूं और धड़कता हूँ हर दिल में.... ताकि ज़िंदा रह सकूं तब तक, जब तक ये जहां है....



मैं दिल्ली हूँ..... दिलों का शहर.......... दिल की बातों का शहर.... दिल के रंगों का शहर.... धडकनों काशहर... मुझमें भारत का दिल बसता है और हर दिल में एक भारत :)

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5 comments:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

blog bhraman karte karte aap tak aa pahucha//aour ynha mujhe gadhya ke ras kaa laabh mila// dilli par bahut kuchh padhha he//kahaani me bhi aour itihaas me bhi//achha likhti he aap/ aapke lekhan me shbdo ka pravaah he jo silsilevaar apni manzeel tak pahuchta he/ knhi bhatkaav nahi laga aour yahi lekhan ki sarthakta hoti he/ badhai/

वर्तिका said...

@ amitabh ji... aapko yahan dekh kar accha laga.... pehli baaar gadhya likhne ki koshish ki thi.... hausa afzahi ke liye aapka hardik dhanyawaad.... :)

Gaurav said...

kya sach mein pahli baar likha hai.........


hard to believe......

Avinash Chandra said...

Itna badhyaa...first match double ton hai ye.

Anonymous said...

amazing work yaar!!
AMIT CHAWLA