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मैंने तो
बस देना चाहा था,
उसे….......
प्रेम का अर्घ्य .........
बचपन का स्वर्ग.........
सपनों का घर .........
अंतस का स्वर.........
मिटटी का जुडाव.........
सानिध्य का आलाव
मुक्तक के छंद.........
रिश्तों के ... बंधन स्वच्छंद .........
और तुम…
तुम मुझे
यह सब दे सकने का
एक मौका भी न दे सके ….!
पर हाँ,
देते भी क्यूँ….?
खुदा जो ठहरे…!
किसे 'कब', 'कहाँ', 'किसके हाथों', और
'क्या' देना है …
यह तय करने का
तुम्हारा एकाधिकार
जो यदि बंट गया,
तो तुम्हारी 'खुदाई'
घट ना जायेगी….................. ???
7 comments:
यह तय करने का
तुम्हारा एकाधिकार
जो यदि बंट गया,
तो तुम्हारी 'खुदाई'
घट ना जायेगी…
ye andar ka aakrosh hai ya kuch aur vartika.. baharhaal sundar rachna ..
dhnayawaad ketan ji...
in panktiyon mein aakrosh hi hai sir, aur kuch nahin....
ये तंज़ है, शिकायत है, वितृष्णा है, ईर्ष्या है, या कुछ और..................क्या है.........
किसके लिए है............
कई सवाल उठे दिल में.........पूछूंगा नही...........
पर सोच जरूर रहा हूँ की इस बार कविता का स्रोत क्या है................?
Title padhkar soncha kis cheez ki khudai karwa rahi hain aap.. :) kavita padhi to aapki shiqayat ke baare mein pata chala...
shayad apne adhikaar diye honge tabhi 'khuda' unhe apne adhikaar samajh baithe..khyal rakhiye aur muskurati rahiye :)
आज आपने जिस खूबसूरती से भावो को पिरोया है -- वाह!!
तो तुम्हारी 'खुदाई'
घट ना जायेगी….................. ???
यह तंज ज्यो ज्यो विस्तार पाता जायेगा रचना का दायरा भी बढता जायेगा.
बहुत अच्छा लगा आपको पढकर
bahut hi sunder kavita
htttp://sanjaybhaskar.blogspot.com
har kavita ki tarah...bahut satik
aakrosh ke tej swar...wo bhi wakai soch raha hoga
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