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कितनी दफा मना किया था
पर सुनता कब था?
ज़रा नज़र हटी नहीं,
के दौड़ पड़ता , झरोखे की ओर.
पाँव उन्चका उन्चका के झांकता,
हाथ बढ़ा बढ़ा के पुकारता.
आह! आखिर वाही हुआ ना,
जिसका डर था!
लोग बताते हैं
पलकों के तिरपाल पकड़,
बहुत देर तक लटका रहा था…
शायद कुछ देर और
इंतज़ार कर लेना चाहता था तुम्हारा.
पर वो सीली पलकें…
आखिर कब तक सहारा देतीं?
सो चटख गयी कोई बेचारी,
और फिसल पड़ा वह भी.
सीधे औंधे मुंह गिरा था,
गर्म पथरीली सड़क पर
और गिरते ही,
धुआं हो गया.
आह! आज फिर मैंने
तुम्हारी इक निशानी गँवा दी!!!
२३ नवम्बर,08
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7 comments:
आह! आज फिर मैंने
तुम्हारी इक निशानी गँवा दी!!!
अनुभूतियों का झोंका है. कितनी गहनता है इन शब्दों के तारतम्य में.
वर्तिका जी मै तो अभिभूत हूँ पढकर (बिलकुल अतिशयोक्ति नहीं)
न मेरे शब्द न मेरी क्षमता इस स्तर की है, कि मैं किसी प्रकार का विश्लेषण कर सकूं, पर इतना जानता हूँ कि कुछ लोग अपने ही अंदाज़ में वो कहा करते हैं जो हर इंसान का दिल कहना चाहता है.....
वाह!! आपकी खासियत है आपके समापन का तरीका..लगता रहता है कि अभी कुछ और होना चाहिये.. :) बहुत ही प्यारि कविता..
आह..! आज फिर मैंने
तुम्हारी इक निशानी गँवा दी.....
सुभानाल्लाह .......!!
वर्तिका जी क्या कमाल कि निशानी गंवाई है बहूत खूब ......!!
ये निशानी गंवाने की कहानी बड़ी खूबसूरत है...शब्दों में बला की मासूमियत है, दिल चुरा ले जाते हैं
सीधे औंधे मुंह गिरा था,
गर्म पथरीली सड़क पर
और गिरते ही,
धुआं हो गया.
आह! आज फिर मैंने
तुम्हारी इक निशानी गँवा दी!!!
Ye meri fav hai.....aapke blog par nahi, all time favorite.
Iski taareef nahi karungaa.
Saamarthya kam hai.
bhaav vibhor ho gaya
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