Wednesday, November 11, 2009

छल्ले

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रूह अब भी
अटकी हुई सी जान पड़ती है…
वहीं, उसी मोड़ पर, जहां
तुमने पहनाये थे
बाहों के छल्ले गले में
और घबराहट में मैंने
अपने दाहिने पाँव के अंगूठे को
आधे छल्ले सा मोड़
रख दिया था तेरे
बायें पाँव पर…।

नाखून चुभ गया था
तुझे मेरा ….
और दर्द से छटपटा
चिल्लाया था तू
“आह ”……॥

“ओह्ह !!!” कहकर खेद जताने को
होठों के छल्ले जोड़े ही थे मैंने,
की तूने झट अपने लब रख उनपर,
वो जगह भी भर दी थी….

गिरहें खोल मेरी, सुलझा रहा था
मुझको आहिस्ता आहिस्ता तू,
और साँसों के कुछ आवारा छल्ले
उलझ रहे थे आपस में …

वक़्त भी वहीँ कहीं उलझ गया होगा …
तभी तो देखो
वह मोड़ तो कबका गुज़र गया ….
तुमने अपना रस्ता भी बदल लिया,
और अब तो सुना है
अनामिका के छल्ले भी….
पर मेरी रूह....... वह तो अब भी वहीँ
अटकी हुई सी जान पड़ती है…

छुड़ा तो लूं, पर जाऊं कैसे..??
वह मोड़ तो एक स्वप्न में था …
और तुम बिन तो कोई स्वप्न भी मुझे
अपनी दहलीज तक लाँघने नहीं देता …..

सोचती हूँ तुम्हें आवाज़ दूं .....
यूँ टुकडों में अब और जिया नहीं जाता.....
पर फिर रहने देती हूँ.....
जानती हूँ, तुम अब नहीं लौटोगे..…
लौट भी नहीं सकते.....

पर सुनो... इतना तो कर ही सकते हो........

मुझे रिहाह करने की खातिर,
अपनी एक नज़्म ही भेज दो ना,
पिरोकर एक छल्ले के मानिंद………।

मैं उसे ही पहन गले में,
उसका एक सिरा
खींच लूंगी, अपने ही हाथों …।
साँसे ठहर जायेंगी,
और वक़्त,
फिर एक बार
चल पडेगा .....

मेरी रूह आज़ाद हो जायेगी…...........
हमेशा हमेशा के लिए !

सुनो,
इतना तो कर ही सकते हो ना.... ??

14 comments:

KK Mishra of Manhan said...

बहुत खूब !!

शोभित जैन said...

पढ़ते हुए ऐसा लगा मानो कोई नुकीला तीर सीने को चाक करता हुआ सीधे दिल तक पहुँच गया हो ... सचमुच लाजबाब...

nilesh mathur said...

वर्तिका जी, एक बार फिर आपकी कलम ने ढहाया है सितम, दर्द को शब्दों में इतनी सुन्दरता से बयां करना सब के वश की बात नहीं है, शाबाश!

Murari Pareek said...

adbhut rachanaa !!! dil ki gahraaiyon se likhi hui !!!

crazy devil said...

बहुत सारी बातें,
टोकारी भर तनहा रातें…
इंतजार में भीगी हुई,
बस..
छल्लों वाली सासें..

कितने त्योहारों में अपनी,
रूठी रूह सुलगायेगी,
उलझे रास्तों पर उलझी,
कविता बन ढल जायेगी?

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

हमेशा की तरह निशब्द और स्तब्ध हू ......you are an amazing and terrific writer

अलीम आज़मी said...

humne saare blogs aapke padhe aur visit kiye bahut sunder likhti hai ...upar waale ne aapko likhne ki mahaarat di hai bas aise hi apne thoughts in panktiyon me pirote rahiye ...hamari subh kaamnayein aapke saath hai ....apko agar mauka mile to hamare blogs ko visit zarur kijiyega ....aapka aana hamare blogs me chaar chand sabit hoga
thanx
best regards
aleem azmi

हरकीरत ' हीर' said...

मैं उसे ही पहन गले में,
उसका एक सिरा
खींच लूंगी, अपने ही हाथों …।
साँसे ठहर जायेंगी,
और वक़्त,
फिर एक बार
चल पडेगा .....

मेरी रूह आज़ाद हो जायेगी…...........
हमेशा हमेशा के लिए !

वाह ...खुदकशी का बड़ा ही नायाब तरीका ढूढ़ा है आपने .....!!

Puja Upadhyay said...

anamika ka chhalla..ufff
fir se ek behtarin kavita, chhallon mein ulajh kar rah gaye ham to.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

nazm ko bahut khoobsurat chhalle pahnaye hain....bahut khoob...badhai

M VERMA said...

वक़्त भी वहीँ कहीं उलझ गया होगा …
तभी तो देखो
वह मोड़ तो कबका गुज़र गया ….

नश्तर सा चुभ गया पढते हुए.
एहसास का इतना करीबी अभिव्यक्ति. शब्द मानो जादू सा असर करते गये.
और फिर

मुझे रिहाह करने की खातिर,
अपनी एक नज़्म ही भेज दो ना,
पिरोकर एक छल्ले के मानिंद………।

मनुहार की यह सादगी वाह वाह ---
बहुत ही सुन्दर

Ravi Rajbhar said...

p4p par padhne ko mila tha...dubara padha kar aur achchha laga...aapne blog ko bhi utna ki sunder sjaya hai jitna p4p..bahdai.

Avinash Chandra said...

गिरहें खोल मेरी, सुलझा रहा था
मुझको आहिस्ता आहिस्ता तू,
और साँसों के कुछ आवारा छल्ले
उलझ रहे थे आपस में …


Ye to shaayad maine 7-8 dafaa padhi hai aur har baar kuchh paayaa hai. Aisa likhne par badhayee dena bhi kam hai.

Simply splendid

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही अच्‍छी कविता लिखी है
आपने काबिलेतारीफ बेहतरीन

Sanjay bhaskar
HARYANA
http://sanjaybhaskar.blogspot.com