Saturday, March 21, 2009

चुम्बकत्व

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जब तुम मुझसे रूठ,
दूर दूर रहने की कोशिशें करते
और मैं,
मैं तुम्हें न मनाते हुए भी
तुम्हारे ही पास रहने के
उपक्रम

ऐसे में ,
कुछ अंतराल बाद ही सही,
पर आत्मिक प्रेम के लिए
क्रोध स्वतः ही स्थान छोड़ देता ….
और तुम लौट आते,
एक बार फिर, मेरी ही बाहों में…

तुम्हें यूं पुनः अपने पास पाकर,
मैं पूछ बैठती
“कभी तुम सचमें मुझसे दूर तो न चले जाओगे?”
और मेरे इस भय को
हंसी में उडाने की चेष्टा करते तुम कहते,
“पागल हो!
मेरी ऐसी किस्मत कहाँ!
कितनी ही कोशिशें कर तो चुका हूँ,
पर नाकामयाबी के सिवाय आज तक
कुछ और हाथ लगा है भला ?
तुम्हारा चुम्बकत्व मुझे खींच ही लाता है
हर बार,
वापस तुम्हारी ही कैद में… ”

तुम्हारा यह जवाब सुन,
मैं कहती कुछ नहीं,
बस मुस्करा देती…
के समझती थी कि
“तुम्हारा चुम्बकत्व”
तुम्हारी शब्दावली से अकस्मात बरसा यह शब्द
मेरे आशंकित मन को
अपने प्रेम कि शक्ति के प्रति
आश्वस्त करने के लिए था

पर ये तो मैं समझती थी ना…
मेरा पागल मन थोड़े ही!
वह नासमझ तो तुम्हारे “पागल हो!” वाक्यांश को
स्थापित करने में लगा था
‘आशंकित से आतंकित होते हुए’

इस ख़याल मात्र से
कि आखिर
‘चुम्बकत्व की सीमा तो
निश्चित होती है’
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3 comments:

शोभित जैन said...

Baap re itna gahan chintan itna bareek vishleshan...
Apne to ek shabd par ek kavita rach di...

Amit K Sagar said...

इस ख़याल मात्र से
कि आखिर
‘चुम्बकत्व की सीमा तो
निश्चित होती है’
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बहुत अच्छी रचना. जारी रहें.

वर्तिका said...

@shobhit jain.... hahah... vishleshan nahin kiyaa humne dost, bas likh diyaa jo dil ne kaha.... aapki tippni ke liye dhanyawaad :)

@amit ji, dhanyawaad aur aabhar yahan aane aur tippni karne ke liye :)