Wednesday, August 19, 2009

'निर्माण'

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सागर, सहरां, सूरज, परबत,
और तो और वक़्त भी.........

सृष्टि को जब भी देखा मैंने,
पाया यही,
कि 'निर्माण'
'जुड़ने' और 'जोड़-सकने'
के एक मात्र सिद्धांत पर,
आधारित है...


पर फिर
जाने कैसे इस दुनिया के लोगों ने,
दुनिया को टुकडों टुकडों में
काट-बाँट कर,
अपनी-अपनी अलग
दुनियाएँ बना लीं ????

6 comments:

sanjay vyas said...

उम्दा चिंतन.
लय और प्रलय का चक्र या ध्वंस और रचना का परस्पर सम्बन्ध इसे समझने में शायद काम आये.

योगेन्द्र मौदगिल said...

सुंदर रचना... वाह..

अंतस said...

आप को पढ़ कर कोई शांत मन लिए रह जाए ये सम्भव नही, जब भी आप को मौका मिलता है, झिंझोड़ डालते हैं सब को अन्दर बाहर............

M VERMA said...

जाने कैसे इस दुनिया के लोगों ने,
दुनिया को टुकडों टुकडों में
काट-बाँट कर,
अपनी-अपनी अलग
दुनियाएँ बना लीं ????
बहुत सुन्दर रचना. मोहक चिंतन. ज़ायज प्रश्न
बहुत सुन्दर

केतन said...

badiya kavita vartika..

Lams said...

Bahut khoob!! ek dum sahi baat kahi hai aapne....nazm bahut achhi hai..!! :)

--Gaurav