Wednesday, September 30, 2009

अदृश्य आवाजें


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सुनो… कुछ कहना चाहती हूँ…
समझोगे…….???


लाइब्रेरी में
किसी किताब में डूबे हुए,
अचानक किसी के कुर्सी सरकाने की
आवाज़ सुन,
चौंककर देखती हूँ,
पर वहाँ.. ….
कोई नहीं होता


आफिस की
सीढियां चढ़ते वक़्त
अक्सर ठिठक जाती हूँ,
किसी के सैंडल चटकाते हुए चढ़ने की आहट से …
मुड कर देखना
इस बार भी
व्यर्थ ही सिद्ध होता है


सबसे शांत कोने में बने
टी स्टाल पर चाय का
इंतज़ार करते हुए भी
लगता है
के जैसे ठीक पीछे वाली टेबल से
सुरसुराती चुस्कियों में घुली मिली
कुछ चूडियों की खनक
भी आ रहीं हों…|
पीछे कोई,
टेबल ही नहीं होती |


रक्षाबंधन पर,
दूकान में लटकी
हजारों राखियों में से
सबसे सुंदर राखी ढूंढते वक़्त,
दबी दबी सी कुछ हंसी ठिठोलियाँ
ध्यान भग्न कर ही जाती हैं |
खीज कर घूमती हूँ…….
पर खुद को अकेला ही पाती हूँ |


कभी कभी पड़ोसियों के घर जाती हूँ
तो भी गुमान होता है,
की जैसे
कोई पुकार रहा हो, किसी को –
नाम लेकर,
स्नेह भरी आवाज़ में |
इस बार भी यह मेरा भ्रम ही होता है


लोग कहते हैं
की मैं पागल हो गयी हूँ
या जो थोडी मृदुता से अपना मत रखना चाहते हैं
वे ‘चुकी हूँ’ की जगह ‘जाउंगी’ जोड़ देते हैं,
अपनी आशावादिता का भी प्रमाण देते हुए |


हो सकता है तुम्हें भी यही लगे…
जायज़ भी है…
‘अदृश्य’ को देखने-सुनने-महसूसने वाले लोग
पागल ही तो होते हैं….


पर मैं जानती हूँ…
जिन्हें मैं देखती-सुनती-महसूसती हूँ
वे अदृश्य नहीं थीं…. बना दी गयी हैं
वे सब वहीँ होती, जहां मैं उन्हें पाती हूँ…
या शायद मेरी, तुम्हारी, हम सबकी… कल्पाना से भी आगे |
बस यदि उनसे
इस दुनिया में आने का हक
छीना नहीं गया होता…!!!


सुनो…
कुछ कहना चाहती हूँ…
समझोगे…….???

‘भविष्य में,
मैं पागल नहीं रहना चाहती…!!!’

11 comments:

Anonymous said...

too good

sanjay vyas said...

achchhi kavita hai.kaheen kaheen kuchh zyaada vistaar laga.

M VERMA said...

बस यदि उनसे
इस दुनिया में आने का हक
छीना नहीं गया होता…!!!
बहुत सार्थक है ये सोच और अभिव्यक्ति. आपकी कविता बहुत कुछ कह रही है.
बेहतरीन

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर रचना ।
ढेर सारी शुभकामनायें.

SANJAY BHASKAR
TATA INDICOM
HARYANA
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

संजय भास्‍कर said...

BEHTRIN RACHNA

Udan Tashtari said...

सुनो…
कुछ कहना चाहती हूँ…
समझोगे…….???

‘भविष्य में,
मैं पागल नहीं रहना चाहती…!!!’

-गहन अभिव्यक्ति!! पसंद आई रचना, बधाई.

Harshvardhan said...

rachna pasand aayi sundar abhivayakti

स्वप्निल तिवारी said...

are bachhi....maine ye nazm nahi padhi kabhi ... pahli bar padh raha hun ..aur poori nazm me sochta raha ki tum kis ki baat kar rahi ho ...aur aakhir me jab samjh aaya ..440 ka current lag gaya ..tooo gooooooooodddd...god bless u

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

too good..amazing..marvellous...क्या खतरनाक समापन किया है आपने...

संजय भास्‍कर said...

RACHNE PASAN AAI

Narendra Raghunath said...

beautiful...sometime you come up with such haunting lines, i am sure one day you will bring out some awesome poem, written on the walls of Indian literature....

If you give little more attention to the narrative structure you follow, you can bring about the candid nature of Indian narrative's oppeness of interpretation with good contribution...