Wednesday, May 04, 2016

खेल अब ये बिगाड़ना है मुझे

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उसने कुछ यूँ रिहा किया है मुझे
जैसे ख़ुद में पिरो रहा है मुझे
खेल अब ये बिगाड़ना है मुझे
‘अपने अंजाम का पता है मुझे’
लत न लग जाए ख़ाब की, बचना
मेरी नींदों का मशविरा है मुझे
उतरा सागर उदास लगता है
चाँद पानी में घोलना है मुझे
मैं ने ही तो बिछाई है ये बिसात
अपने अंजाम का पता है मुझे
यां की आबो-हवा भली है अभी
तितलयों ने बता दिया है मुझे
और गहरे हुए मिरे अक्षर
तुम ने जब भी मिटा दिया है मुझे
उसने यादें उधेड़ कर मेरी
अपने स्वेटर में बुन लिया है मुझे
कैक्टस जैसी याद हूँ और वो
रोज़ अश्कों से सींचता है मुझे
मुझ को हैरत है किस लिए ये घर
रोज़ हैरत से देखता है मुझे
मेरा हर वार जानता है वो
उसकी हर ढाल का पता है मुझे
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Thursday, November 12, 2015

~I am your museum~

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I don’t look like my mother; 
Not even the least.
Yet, I am she.
Her habits are mine,
so are her joys, her fears,
and to some extent, her beliefs too.
Yet, I do not resemble her.
I just bear her.
Like a museum,
where the remains on display
are not even vaguely
like the original organisms,
yet, remain preserved.
So is my mother.
Preserved in pieces, within me.
And so are you all my loves
who have touched my life
In an unforgettable way.
I bear you all.
I am your museum.

The Death Wish

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I wish I die.
Silently.
Like the leaf
that has just fallen down,
and no one noticed it.
Not even the tree
that bore it for so long.
Like the water drop
that decided to drown in itself
like a whirlpool
while the river was busy
chasing its existential purpose.
Or the ray of sunlight
that silently slit its wrist
and faded to white
when its twins
were rushing to
kill the darkness.
Or that distant star
that closed its eyes,
forever, after they got sore
watching over the world
for years.
Or may be that God,
who decided to
suffocate itself to death
with the offerings
you piled before him.
I wish to not leave behind
the deafening shrieks
and screams of loved ones
or a trail of silent mourners.
I wish to die quietly.
In seclusion,
In solitude.
In peace.
Like the universe.

Wednesday, July 15, 2015

My Life, Formatted!

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तुम्हारी याद की लंबी रात में,
सुब्ह का तारा कॉमा है;
भोर, पैराग्राफ ब्रेक
और दिन, दो पैराग्राफ के बीच में छूटी जगह |
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Monday, March 16, 2015

कस्टम-फिट का समय और बुद्ध

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वो बड़ी-बड़ी आँखों वाली लड़की थी
हाँ, बड़े सपनों वाली नहीं,
बड़ी आँखों वाली
उसे तलाश थी अपनी,
वो देखना चाहती थी खुद को,
उससे ज़ियादा,
जितना उसका आइना उसे दिखता था
सो, अपनी उम्र के अलग अलग पड़ाव पर
उसने चुने कई अलग अलग आईने
जिनमें कई जोड़ी आँखें शामिल थीं...
माँ, बाबा, भाई, बहन, दोस्त,
समाज, तीन प्रेमी
और-तो-और घुंगराले बालों वाले उस अजनबी की भी
जिससे उसका बस अजनबियत का रिश्ता था

पर हर बार उसने यही पाया कि
हर रिश्ते ने क़तर दिया था उसका अक्स
अपने आमाप के अनुसार
रिश्ते अपने समय से अछूते जो नहीं होते
और ये मेड-तो-मेज़र और कस्टम-फिट का समय था
खैर, अब वो थक गयी है है अपने आधे अधूरे अक्स देख के
सो, अब मूँद ली हैं उसने आखें,
सी लिए हैं होठ
और इक कवच क तौर पर
सजा ली है एक अधूरी मुस्कान
काश! वो अपने कान भी बंद कर पाती
जो अब आलोचनाओं, और विलापों के बोझ से
दिन-ब-दिन लम्बे हुए जाते हैं
सचमुच, बुद्ध होना आसन नहीं!
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Saturday, March 07, 2015

प्रिजर्वेशन या हत्या?

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मत लिखो कोई कविता
कि तुम्हारे उसे कागज़ पर दर्ज करते ही
एक जीती जागती कविता दम तोड़ देगी
क्यूंकि वह यह जानती है कि
अब उसे कोई जियेगा नहीं,
गुजर जायेंगे लोग
उसे अनदेखा करते हुए
यह सोच कर कि अब वह
प्रेज़र्व कर ली गयी है कागजों में,
बना ली गयी हैं उसकी कई कई प्रतियाँ,
और वे लौट सकते हैं उस तक
अपनी सहूलियत और मर्ज़ी से
और साथ ही वह यह भी जानती है
कि कोई नहीं लौटता उनतक
जिनके खोने का डर नहीं होता

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Friday, December 20, 2013

चाँद-गेंद

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गेंद है कोई 
चाँद किसी बच्चे की शायद
जिससे किसी पडोसी की खिड़की का कांच
टूट गया था छन से इक शब
और खडूस पडोसी नें वो गेंद उसे लौटाई नहीं
उस बच्चे से दूर बहुत ही
आसमान की ताक़ पे रख दी.. 
उसी ताक़ पे चाँद गेंद सा लुढका करता है..​
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Sunday, April 14, 2013

ग़ज़ल में मेरी पहली कोशिश

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तुमको जब भी सोचा है
चुटकी में दिन बीता है

आ उलझा जो पेड़ों से
ठोकर खाया झोंका है

सहराओं में जाते ही
रस्ता रस्ता भूला है

जो तुझमें कोई ऐब नहीं,
फिर क्यूँ छिपता फिरता है?

दरिया में सूरज पिघला 
क्या वो बर्फ का गोला है?

दुनिया,दिल दोनों हों खुश
ख़ाब ये कितना महंगा है!

सूरज तेरे जलने से
शब का काजल बनता है

इतनी ठंढ औ इक बूढ़ा
कुहरा ओढ़े बैठा है

आँखें भी हैं नूर भी है
शह्र ये फिर भी अंधा है
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- वर्तिका

Wednesday, February 13, 2013

गुड-नून

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झुग्गियां, परछाइयां है महलों की
उखाड़ फेखने से ख़त्म नहीं होंगी ।
न ही ख़त्म होंगी वो
महलों को गिरा देने से,
क्यूंकि हर महल, खुद किसी
दूसरे बड़े महल की परछाई है ।

सो 'गर चाहते हो
कि न रहे झुग्गियां बाकी
तो उठाओ वो सूरज,
जो अभी किसी 'halo' सा चमकता है,
और रख दो उसे
संसार के सर के ठीक ऊपर 
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* halo = तेजोमंडल, प्रकाश-चक्र

Thursday, May 19, 2011

"महा"-नगर

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सामने विस्तार ही विस्तार है

दूर तक फैला हुआ एक शहर है
जो समंदर किनारे बस गया
या समंदर आके उसके गले लग गया ...
पता नहीं!

पर समंदर है |
और उसका दूसरा छोर
उन पहाड़ों से जा मिला है...
पहाड़, जिनकी ऊँचाई इतनी है
कि बमुश्किल ही बताया जा सकता है
कि उन्होंने आसमान सर पर उठा रखा है
या कोई राज़ उगलवाने की खातिर
आसमाँ ने ही उन्हें सदियों से उल्टा लटका रखा है |

पर आसमान है |
और दूर तक है
इतनी दूर तक कि उसका दूसरा सिरा कहाँ है
मुझे नहीं दीखता...
शायद अनंत में होगा ...मुझे क्या ?

बारवीं मंजिल पर बैठ
शीशे कि दीवारों से
हर रोज़ देखती हूँ ये विस्तार
और हर रोज़ ही महसूसती हूँ
अपने भीतर कुछ घुटता हुआ ...

"महा"-नगर शायद
इसे ही कहते हैं !

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